जब नहीं हुआ था सर्फ और साबुन का आविष्कार , तब कैसे धोए जाते थे कपड़े-जानिए

जब सर्फ और साबुनों का आविष्कार नहीं हुआ था, तब भी भारत में कपड़े इस तरह धोए जाते थे कि वो लकदक चमकते थे. तब कपड़ा धोने का काम पूरी तरह प्राकृतिक चीजों से होता था. लिहाजा साफ तो होते ही थे बल्कि ज्यादा स्वास्थ्यवर्धक होते थे. सर्फ और साबुन के जरिए कपड़ों पर जो केमिकल असर रह जाता है, वो तो तब होने का सवाल ही नहीं उठता. राजा महाराजों के कपड़े भी तब राजमहलों के धोबी इस तरह धोते थे कि वो साफ चमचमाने लगते थे. देश के मशहूर धोबी घाटों पर आज भी कपड़े धोने के लिए ना तो साबुन का इस्तेमाल होता है और ना ही सर्फ का.

भारत में आधुनिक साबुन की शुरुआत 130 साल से पहले पहले ब्रिटिश शासन में हुई. लीवर ब्रदर्स इंग्लैंड ने भारत में पहली बार आधुनिक साबुन बाजार में उतारा. पहले ये साबुन ब्रिटेन से आयात किया गया. फिर जब लोग उनका इस्तेमाल करने लगे, मांग बढ़ने लगी तो पहली बार उसकी फैक्ट्री भी लगाई गई.

ये फैक्ट्री नहाने और कपड़े साफ करने दोनों तरह के साबुन बनाती थी. नॉर्थ वेस्ट सोप कंपनी पहली ऐसी कंपनी थी, जिसने 1897 में मेरठ में देश का पहला साबुन का कारखाना लगाया. ये कारोबार खूब फला फूला. बाद में जमशेदजी टाटा इस कारोबार में पहली भारतीय कंपनी के तौर पर कूदे.

जब भारत में साबुन का इस्तेमाल नहीं होता था. सोड़े और तेल के इस्तेमाल से साबुन बनाने की कला नहीं मालूम थी तो कैसे कपड़ों को धोकर चकमक किया जाता था.

रीठा का खूब इस्तेमाल होता था
भारत वनस्पति और खनिज से हमेशा संपन्न रहा है. यहां एक पेड़ होता है जिसे रीठा कहा जाता है. तब कपड़ों को साफ करने के लिए रीठा का खूब इस्तेमाल होता था. राजाओं के महलों में रीठा के पेड़ अथवा रीठा के उद्यान लगाए जाते थे. महंगे रेशमी वस्त्रों को कीटाणु मुक्त और साफ करने के लिए रीठा आज भी सबसे बेहतरीन ऑर्गेनिक प्रोडक्ट है.

रीठा ही था प्राचीन भारत का सुपर सोप
प्राचीन भारत में रीठे का इस्तेमाल सुपर सोप की तरह होता था. इसके छिलकों से झाग पैदा होता था, जिससे कपड़ों की सफाई होती थी, वो साफ भी हो जाते थे और उन पर चमक भी आ जाती थी. रीठा कीटाणुनाशक का भी काम करता था. अब रीठा का इस्तेमाल बालों को धोने में खूब होता है. रीठा से शैंपू भी बनाए जाते हैं. ये अब भी खासा लोकप्रिय है. पुराने समय में भी रानियां अपने बड़े बालों को इसी से धोती थीं. इसे सोप बेरी या वाश नट भी कहा जाता था.

गर्म पानी में डालकर उबाला जाता था कपड़ों को
तब दो तरह से कपड़े साफ होते थे. आमलोग अपने गंदे कपड़े गर्म पानी में डालते थे. उसे उबालते थे. इसके बाद इसे निकालकर कुछ ठंडा करके पत्थरों पर पीटा जाता था, जिससे उसकी मैल निकल जाती थी. ये काम बड़े पैमाने पर बड़े बड़े बर्तनों और भट्टियों लगाकर किया जाता था. अब भी भारत में जहां बड़े धोबी घाट हैं वहां कपड़े इन्हीं देशी तरीकों से साफ होते हैं. उसमें साबुन या सर्फ का इस्तेमाल नहीं होता.

महंगे और मुलायम कपड़े कैसे धुलते थे
महंगे और मुलायम कपड़ों के लिए रीठा का इस्तेमाल होता था. पानी में रीठा के फल डालकर उसे गर्म किया जाता है. ऐसा करने से पानी में झाग उत्पन्न होता है. इसको कपड़े पर डालकर उसे ब्रश या हाथ से पत्थर या लकड़ी पर रगड़ने से ना कपड़े साफ हो जाते थे बल्कि कीटाणुमुक्त भी हो जाते थे. शरीर पर किसी प्रकार का रिएक्शन भी नहीं करते थे.

सफेद रंग का एक खास पाउडर भी था
एक तरीका साफ करने का और था, जो खूब प्रचलित था. ग्रामीण क्षेत्रों में खाली पड़ी भूमि पर, नदी-तालाब के किनारे अथवा खेतों में किनारे पर सफेद रंग का पाउडर दिखाई देता है जिसे ‘रेह’ भी कहा जाता है. भारत की जमीन पर यह प्रचुर मात्रा में पाया जाता है. इसका कोई मूल्य नहीं होता. इस पाउडर को पानी में मिलाकर कपड़ों को भिगो दिया जाता है. इसके बाद कपड़ों लकड़ी की थापी या पेड़ों की जड़ों से बनाए गए जड़ों से रगड़कर साफ कर दिया जाता था.

रेह एक बहुमूल्य खनिज है. इसमें सोडियम सल्फेट, मैग्नीशियम सल्फेट और कैल्शियम सल्फेट होता है, इसमें सोडियम हाइपोक्लोराइट भी पाया जाता है, जो कपड़ों को कीटाणुमुक्त कर देता है.

नदियों और समुद्र के सोडा से भी साफ होते थे कपड़े
जब नदियों और समुद्र के पानी में सोड़े का पता लगा तो कपड़े धोने में इसका भरपूर इस्तेमाल होने लगा. प्राचीन भारत ही नहीं बल्कि कुछ दशक पहले तक भी मिट्टी और राख सो बदन पर रगड़कर भी भारतीय नहाया करते थे या फिर अपने हाथ साफ करते थे. राख और मिट्टी का इस्तेमाल बर्तनों को साफ करने में भी होता था. पुराने समय में लोग सफाई के लिए मिट्टी का प्रयोग करते थे.




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