क्या हैदराबाद को पाकिस्तान में मिलाने के लिए जिन्ना ने वहां मोटा निवेश किया था

हैदराबाद पर शोध करने वाले और उसका इतिहास लिखने वाले कई लेखकों ने यहां तक लिखा कि अगर निजाम वाकई 1947 के समय की असलियत को समझ रहे होते तो वो कभी मोहम्मद अली जिन्ना के बहकावे में नहीं आते. कुछ ने तो उन्हें इसलिए मूर्ख कह दिया,क्योंकि वो इस असलियत को समझ नहीं पा रहे थे कि 85 फीसदी हिंदुओं की आबादी और चारों ओर से भारतीय संघ से घिरा हैदराबाद कभी पाकिस्तान का हिस्सा नहीं बन सकता. एक किताब कहती है कि जिन्ना ने भारत की आजादी के बाद हैदराबाद में दो लाख रुपए का निवेश किया था.

अगर निजाम इस बात को समझ जाते तो शायद आज भारत में उनका इतिहास अलग तरीके से लिखा जा रहा होता या संभव है कि दूसरे रजवाड़ों की तरह उनका परिवार भी हैदराबाद और आंध्र, तेलंगाना की राजनीति में ताकत बरकरार रख पाता.

भारत की आजादी के बाद भारत और पाकिस्तान दो देश बन चुके थे. तीन बड़ी रियासतें कश्मीर, हैदराबाद और जूनागढ़ के शासकों का रवैया टालमटोल वाला था. वो या तो खुद को आजाद रखने का सपना देख रहे थे या फिर जिन्ना के बहकावे में थे. कम से कम हैदराबाद और जूनागढ़ के लिए तो ये बात पुख्ता तौर पर कही जा सकती है.

हैदराबाद के निजाम लगातार जैसी हरकतेें कर रहे थे वो भारत के लिए वाकई दिक्कत भरी थी. जिन्ना लगातार निजाम को भड़का रहे थे. तो निजाम भी ना जाने किस तरह असलियत को समझे बगैर ऐसे सपने देखने में लगे थे, जो व्यावहारिक तौर पर पूरे नहीं होने वाले थे.

तब हैदराबाद की स्थिति पर भारत के गृहमंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल ने हैदराबाद को ‘भारत के दिल का नासूर’ कहा. इसके ऑपरेशन को ज़रूरी बताते हुए फ़ौजी कार्रवाई कराई.

हैदराबाद एक जमाने में भारत की सबसे ख़ुशहाल रियासत थी. सबसे समृद्ध भी. उसके खज़ाने भरे हुए थे. वो सभ्यता और संस्कृति का केंद्र माना जाता थआ. यहाँ के निवासी कई भाषाएं बोलते थे. एक बड़ा हिस्सा तेलुगू बोलता था तो दूसरा कन्नड़ बोलता था. यहां एक इलाक़े में मराठी बोलने वाले लोग भी थे. उर्दू ज़ुबान निजाम के प्रशासन की भाषा थी.

निज़ाम हैदराबाद के नाम से मशहूर उस्मान अली ख़ान अपने ज़माने में दुनिया के सबसे अमीर व्यक्ति थे जिनकी दौलत का अनुमान लगभग 250 अरब अमरीकी डॉलर लगाया जाता है. उनके पास सोने और आभूषणों का व्यापक खज़ाना और बड़ा भंडार था जिसमें 20 करोड़ अमरीकी डॉलर की क़ीमत का एक 185 कैरट का जैकब हीरा भी था जिसे वो पेपर वेट (कागज़ को दबाने वाले वज़न) के तौर पर इस्तेमाल करते थे.

आखिरकार 17 सितंबर 1948 के दिन भारत सरकार ने ‘पुलिस एक्शन’ के जरिए हैदराबाद का विलय भारत में करा लिया. इसे ‘ऑपरेशन पोलो’ भी कहा जाता है.

हैदराबाद के विलय पर शोध करने वाली प्रोफ़ेसर डॉ. उमा जोज़ेफ़ ने कुछ समय पहले बीबीसी को बातचीत में बताया था, निजाम वादाखिलाफी कर रहे थे. जब हैदराबाद और भारत के बीच स्टैंड स्टिल एग्रीमेंट हो गया तो उसके तहत हैदराबाद को अपनी विदेश नीति भारत के हवाले करनी थी. उन्हें किसी दूसरे देश से सीधे तौर पर सम्बन्ध नहीं रखना था.इसके उलट वो कुछ और ही कर रहे थे.

उन्होंने समझौते का पूरी तरह से उल्लंघन तो किया ही बल्कि बहुत तेज़ी से हैदराबाद में हथियार जमा करने लगे. वो पकिस्तान और जिन्ना के लगातार संपर्क में थे. जो उन्हें उकसा रहे थे कि हैदराबाद पकिस्तान का हिस्सा हो सकता है. भारत ये स्थिति कतई स्वीकार करने की स्थिति में नहीं था कि भारत के बीचोंबीच एक पाकिस्तान बन जाए.

प्रतिष्ठित विद्वान सय्यद अबुल आला मौदूदी ने अपनी पत्रिका ‘तर्जुमान उल क़ुरान’ के सन 1948 के पांचवे और दिसंबर के अंक में लिखा : ‘बंटवारे के बाद हैदराबाद भारतीय संघ के घेरे में आ चुका था इसलिए न बाहर से कोई बड़ी मदद उसको मिल सकती थी और न ही अंदर से इसकी कोई संभावना थी.

‘इस स्थिति में कोई होशमंद व्यक्ति यह उम्मीद नहीं कर सकता था कि वहां 85 प्रतिशत ग़ैर मुस्लिम बहुसंख्यक पर 15 प्रतिशत मुस्लिम अल्पसंख्यक का वो वर्चस्व और प्रभुत्व बनाए रखा जा सकता है जो पहले बिलकुल विपरीत स्थिति में क़ायम था और किसी भी अक़लमंद व्यक्ति से ये बात छुपी नहीं रह सकती थी कि हैदराबाद भारतीय संघ से लड़ कर अपनी स्वतंत्रता क़ायम नहीं रख सकता था.’

कई इतिहासकारों ने निज़ाम के जिन सलाहकारों पर निशाना साधा, उसमें कासिम रिजवी और जिन्ना दोनों आते हैं. कासिम रिजवी उस समय हैदराबाद का वजीर था और जिन्ना भारत से बदले की भावना से भरे हुए थे. उन दोनों ने निजाम को जमकर बरगलाया और झूठी उम्मीदें बंधाईं.

ए.जी. नूरानी ने तो अपने एक लेख में साफ लिखा, “निज़ाम बहुत ही मूर्ख व्यक्ति थे और उन्हें क़ासिम रिज़वी जैसा व्यक्ति मिल गया यानी सोने पर सुहागा. जुलाई 1948 में लॉर्ड माउंटबैटन ने उन्हें एक बेहतरीन प्रस्ताव दिया, जिसे उन्होंने अस्वीकार कर दिया. “

हैदराबाद में मोहम्मद अली जिन्ना की भूमिका के बारे में, नूरानी ने कहा, “मोहम्मद अली जिन्ना ने भारत से बदला लेने के लिए अपने आदमी मीर लाइक़ को हैदराबाद में बढ़ावा दिया है. उनसे जिन्ना के व्यापारिक संबंध भी थे. मोहम्मद अली जिन्ना ने शायद मार्च 1947 में हैदराबाद में दो लाख रुपये का निवेश भी किया था.”

एजी नूरानी ने 4 अगस्त, 1947 को मोहम्मद अली जिन्ना द्वारा दिए गए एक साक्षात्कार का उल्लेख किया, जो दिल्ली मिनट्स में शामिल है और हैदराबाद पर उनकी किताब ‘द डिस्ट्रक्शन ऑफ हैदराबाद’ में भी शामिल है.

पुस्तक में शामिल परिशिष्ट में दर्ज है कि “मोहम्मद अली जिन्ना ने कहा कि उनका मानना है कि आली जाह (निजाम हैदराबाद) और उनके सलाहकारों ने विलय के ख़िलाफ़ अपना मन बना लिया है, तो उन्हें मज़बूती और वफ़ादारी के साथ इस पर क़ायम रहना चाहिए. चाहे वह (भारत) कोई भी आर्थिक प्रतिबंध लगाए, आली जाह का इस बात पर ज़ोर होना चाहिए कि ‘आप चाहे जो कर लें, जिस तरह चाहें धमका लें, लेकिन विलय के काग़ज़ात या संघ में शामिल होने पर उस वक़्त तक सहमत नहीं हो सकता जब तक मेरी अंतरात्मा नहीं कहती. आपको मुझे मजबूर करने का कोई अधिकार नहीं है और मुझे अपना निर्णय लेने का अधिकार है.”

हकीकत ये थी हैदराबाद की बहुसंख्यक आबादी हिंदू धर्म को मानती थी और वहां कांग्रेस के समर्थक भारत में शामिल होना चाहते थे. दूसरी ओर कम्युनिस्टों का तेलंगाना आंदोलन जारी था. ये अफ़वाहें भी फैलने लगीं कि निज़ाम हैदराबाद, गोवा में पुर्तगालियों और पाकिस्तान की मदद से ख़ुद को सशस्त्र कर रहे हैं.

13 सितंबर, 1948 को हैदराबाद विलय का जो आपरेशन किया गया, वो केवल पांच दिनों में समाप्त हो गया और 18 सितंबर को निज़ाम के कमांडर इन-चीफ़ सैयद अहमद अल-ईद्रूस ने औपचारिक रूप से आत्मसमर्पण कर दिया.

साभार-न्यूज़ 18

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