Phooldei 2023: प्रकृति पूजने का लोक पर्व फूलदेई आज, घरों में गूंजेंगे फूलदेई छम्मा देई के स्वर

मीन संक्रांति के दिन घरों की देहरी / दहलीज पर बच्चे गाना गाते हुए फूल डालते हैं, इस त्यौहार को फूलदेई कहा जाता है. कहीं-कहीं फूलों के साथ बच्चे चावल भी डालते हैं. इसी को गढ़वाल में फूल संग्राद और कुमाऊं में फूलदेई पर्व कहा जाता है. इस त्यौहार मे फूल डालने वाले बच्चे फुलारी कहलाते हैं.

फूलदेई को फुलदेई, छम्मा देई, दैणी द्वार, फूल संक्रांति तथा फूल संग्राद आदि नामो से जाना जाता है. जैसे कि, सबसे प्रसिद्ध संक्रांति त्यौहार मकर संक्रांति प्रायः 14 जनवरी के दिन ही होता है. उसी प्रकार मीन संक्रांति के दिन होने के कारण यह फूलदेई त्यौहार प्रत्येक वर्ष 14 मार्च अथवा 15 मार्च के दिन ही होता है.

अधिकांश हिंदू त्यौहार चंद्रमा की स्थिति के अनुसार मनाये जाता हैं, अतः उनकी एक निश्चित तिथि निर्धारित रहती है. परंतु संक्रांति पर आधारित त्यौहार सूर्य के चारों तरफ प्रथ्वी के चक्र की स्थति के अनुसार मनाए जाते है. इसलिए हिंदू पंचांग के अनुसार कोई तय तिथि निर्धारित नहीं की जा सकती है. अतः फूलदेई त्यौहार हिन्दी माह फाल्गुन अथवा चैत्र मे से किसी भी माह मे हो सकता है.

फूलदेई के दिन बच्चे उत्तराखंड की लोकभाषा कुमाउनी में एक गीत गाते हुए सभी लोगो के दरवाजों पर फूल डालते हैं, और अपना आशीष वचन देते जाते हैं.

कुमाउनी में बच्चे गाते हैं –

“ फूलदेई छम्मा देई ,

दैणी द्वार भर भकार.

यो देली सो बारम्बार ..

फूलदेई छम्मा देई

जातुके देला ,उतुके सई ..

गढ़वाली में फुलारी बच्चे फूल डालते हुए गाते हैं –

ओ फुलारी घौर.

झै माता का भौंर .
क्यौलिदिदी फुलकंडी गौर .

डंडी बिराली छौ निकोर.
चला छौरो फुल्लू को.

खांतड़ि मुतड़ी चुल्लू को.
हम छौरो की द्वार पटेली.

तुम घौरों की जिब कटेली.

पांडवाज ग्रुप के द्वारा लोकप्रिय गीत:
चला फुलारी फूलों को,
सौदा-सौदा फूल बिरौला
भौंरों का जूठा फूल ना तोड्यां
म्वारर्यूं का जूठा फूल ना लैयां

यह त्यौहार क्यों मनाया जाता है | प्योंली की कहानी | इतिहास –
फूलदेई पर एक विशेष पिले रंग के फूल का प्रयोग किया जाता है ,जिसे प्योंली कहा जाता है. फूलदेई और फुलारी त्योहार के संबंधित उत्तराखंड में बहुत सारी लोककथाएँ प्रचलित हैं. और कुछ लोक कथाएँ प्योंलि फूल पर आधारित है. उनमें से एक लोककथा इस प्रकार है.

प्योंली की कहानी -:
प्योंली नामक एक वनकन्या थी.वो जंगल मे रहती थी. जंगल के सभी लोग उसके दोस्त थे. उसकी वजह जंगल मे हरियाली और सम्रद्धि थी. एक दिन एक देश का राजकुमार उस जंगल मे आया,उसे प्योंली से प्रेम हो गया और उससे शादी करके अपने देश ले गया .

प्योंली को अपने ससुराल में मायके की याद आने लगी, अपने जंगल के मित्रों की याद आने लगी. उधर जंगल मे प्योंली बिना पेड़ पौधें मुरझाने लगे, जंगली जानवर उदास रहने लगे. उधर प्योंली की सास उसे बहुत परेशान करती थी. प्योंली कि सास उसे मायके जाने नही देती थी.

प्योंली अपनी सास से और अपने पति से उसे मायके भेजने की प्रार्थना करती थी. मगर उसके ससुराल वालों ने उसे नही भेजा. प्योंलि मायके की याद में तड़पते लगी. मायके की याद में तड़पकर एक दिन प्योंली मर जाती है.

राजकुमारी के ससुराल वालों ने उसे पास में ही दफना दिया. कुछ दिनों बाद जहां पर प्योंली को दफ़नाया गया था, उस स्थान पर एक सुंदर पीले रंग का फूल खिल गया था. उस फूल का नाम राजकुमारी के नाम से प्योंली रख दिया .

तब से पहाड़ो में प्योंली की याद में फूलों का त्योहार | फूलदेई | फुलारी त्यौहार | मनाया जाता है.

केदार घाटी में एक अन्य लोक कथा प्रचलित है जो इस प्रकार है –
“एक बार भगवान श्री कृष्ण और देवी रुक्मिणी केदारघाटी से विहार कर रहे थे . तब देवी रुक्मिणी भगवान श्री कृष्ण को खूब चिड़ा देती हैं , जिससे रुष्ट होकर भगवान छिप जाते हैं. देवी रुक्मणी भगवान को ढूढ ढूढ़ कर परेशान हो जाती है. और फ़िर देवी रुक्मिणी देवतुल्य छोटे बच्चों से रोज सबकी देहरी फूलों से सजाने को बोलती है.

ताकि बच्चो द्वारा फूलों का स्वागत देख , भगवान अपना गुस्सा त्याग सामने आ जाय. और ऐसा ही होता है,बच्चों द्वारा पवित्र मन से फूलों की सजी देहरी आंगन देखकर भगवान का मन पसीज जाता है.और वो सामने आ जाते हैं.”

तब से इसी खुशी में चैत्र संक्रांति से चैत्र अष्टमी तक बच्चे रोज सबके देहरी व आंगन फूलों से सजाते हैं. और तब से इस त्यौहार को फूल संक्रांति | फूलदेई | फूलों का त्यौहार | फुलारी आदि नामों से जाना जाता है.

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