देहरादून: सीएम धामी ने किया गौरी देवी के बेटे चंद्र सिंह राणा को सम्मानित, सौपा पांच लाख रुपये का चेक

देहरादून| सीएम धामी ने गौरी देवी के बेटे चंद्र सिंह राणा से मुलाकात की और उन्हें उत्तराखंड रत्न की सम्मान राशि के दौर पर पांच लाख रुपये का चेक दिया. इस मौके पर चंद्र सिंह राणा ने मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी का आभार व्यक्त किया.

बता दें कि चिपको आंदोलन की सूत्रधार गौरा देवी को साल 2016 में राज्य स्थापना दिवस के दिन मरणोपरांत उत्तराखंड रत्न से सम्मानित किया गया था. तब सरकार ने उनके परिजनों को उत्तराखंड रत्न के नाम पर सिर्फ प्रशस्ति पत्र सौंपा था, लेकिन सम्मान निधि की पांच लाख की धनराशि आज तक नहीं मिली थी, जो आज दी गई है.

चिपको आंदोलन का इतिहास:
गौरतलब है कि यह आंदोलन तत्कालीन उत्तर प्रदेश के चमोली जिले के छोटे से रैणी गांव से 26 मार्च 1973 को शुरू हुआ था. साल 1972 में प्रदेश के पहाड़ी जिलों में जंगलों की अंधाधुंध कटाई का सिलसिला शुरू हो चुका था. लगातार पेड़ों के अवैध कटान से आहत होकर गौरा देवी के नेतृत्व में ग्रामीणों ने आंदोलन तेज कर दिया था.

बंदूकों और कुल्हाड़ियों की परवाह किए बिना ही उन्होंने पेड़ों को घेर लिया और पूरी रात पेड़ों से चिपकी रहीं थी. अगले दिन यह खबर आग की तरह फैल गई और आसपास के गांवों में पेड़ों को बचाने के लिए लोग पेड़ों से चिपकने लगे. चार दिन के टकराव के बाद पेड़ काटने वालों को अपने कदम पीछे खींचने पड़े थे.

पेड़ कटान का ग्रामीणों ने किया विरोध: इस आंदोलन में महिला, बच्चे और पुरुषों ने पेड़ों से लिपटकर अवैध कटान का पुरजोर विरोध किया था. गौरा देवी वो शख्सियत हैं, जिनके प्रयासों से ही चिपको आंदोलन को विश्व पटल पर जगह मिल पाई. इस आंदोलन में प्रसिद्ध पर्यावरणविद् सुंदरलाल बहुगुणा, कामरेड गोविंद सिंह रावत, चंडीप्रसाद भट्ट समेत कई लोग भी शामिल थे.

आंदोलन के बाद वन संरक्षण अधिनियम बना: वहीं, 1973 में शुरू हुए इस आंदोलन की गूंज केंद्र सरकार तक पहुंच गई थी. इस आंदोलन का असर ही था कि उस दौर में केंद्र की राजनीति में पर्यावरण एक एजेंडा बना. आंदोलन को देखते हुए केंद्र सरकार ने वन संरक्षण अधिनियम बनाया. इस अधिनियम का मुख्य उद्देश्य वनों की रक्षा करना और पर्यावरण को जीवित रखना था.

चिपको आंदोलन के चलते ही साल 1980 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने एक विधेयक बनाया था, जिसके तहत देश के सभी हिमालयी क्षेत्रों में वनों के काटने पर 15 सालों का प्रतिबंध लगा दिया गया था. इस आंदोलन के बलबूते महिलाओं को एक अलग पहचान मिल पाई थी. महिलाओं और पुरुषों ने पेड़ों को बचाने के लिए अपनी जान तक की परवाह नहीं की थी.


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