उत्तराखंड: सातूं-आठूं में इस बार घर पर नहीं रहेंगे विरूड़, 24 और 25 अगस्त को सातूं-आठूं की पूजा


इस साल सातूं-आठूं के विरूड़ घर पर नहीं रह पाएंगे. यह अद्भुत संयोग सात साल बाद पूर्ण रूप से पड़ रहा है. इसका कारण विरूड़ पंचमी 23 अगस्त के दूसरे ही दिन 24 अगस्त अमुक्ताभरण सप्तमी यानी सातूं का होना है. 25 अगस्त को आठूं का यानी दुर्वा अष्टमी का पर्व मनाया जाएगा.

सामान्यतया विरूड़े पंचमी को भिगोने के बाद तीसरे दिन सप्तमी को पूजने के लिए ले जाए जाते थे. इस साल पंचमी के दिन ही षष्टी की तिथि होने के कारण यह हो रहा है.

भादो माह के शुक्लपक्ष की पंचमी से अष्टमी तक चार दिन कुमाऊं में गौरा-महेश्वर पर्व मनाया जाता है. इस पर्व की शुरुआत 23 अगस्त को विरूड पंचमी से होनी है. समापन आठूं यानी महेश्वर पूजन दुर्वा अष्टमी के दिन होता है, लेकिन सात साल बाद अद्भुत संयोग पड़ रहा है.

विरुड़े भिगोने के दूसरे दिन ही गौरा को चढ़ा दिऐ जाएंगे, हालांकि इस बार कोरोना के कारण सातूं-आठूं पर्व की धूम कम ही देखने को मिलेगी, लेकिन परंपरागत रूप से त्योहार को सादगी से मनाया जाएगा.

विरूड़ को समझें
पांच प्रकार के दलहन भिगोये जाते हैं, जिनमें चना, गहत, मटर, गुरूंश और उरद इसमें मसूर वर्जित है. इस पंच अनाजी भिगोने को ही कुमाऊं में विरूड़ कहा जाता है.

गौरा महेश्वर को भी जानें
गौरा यानी पार्वती का मायका हिमालय को बताया गया है, कुमाऊं और गढ़वाल के लोग पार्वती को अपनी बेटी की तरह मानते हें. इसीलिए प्रत्येक वर्ष भाद्रपद सप्तमी और दुर्वाष्टमी के दिन दोनों का विवाह और फिर विदाई की जाती है. इसमें महिलाएं दो दिन तक उपवास रखती हैं. विदाई पर विरह गीत गाए जाते हैं.

दुर्वा धागा खास होता है
गौरा-महेश्वर पूजन में दुर्वा धागा अर्पित किया जाता है. उसी दुर्वा धागा को कुमाऊं की महिलाएं यज्ञोपवित के रूप में गले में और हाथ में बांधती हैं.

उत्सव मनाने की परंपरा
इस दौरान कुमाऊं के लगभग सभी गांवों में गौरा-महेश्वर धान के खेतों में उगने वाली सौ घास से बनाए जाते हैं और उन्हें विभिन्न परिधानों से सजाकर पहले दो दिन वैदिक विधिविधान से पूजा जाता है और फिर उत्सव मनाया जाता है.

इस में झोड़ा, न्योली और भगनोला और स्थानीय लोकआधारित गीत गाए जाते हैं, जिस दिन विदाई होती है वह बहुत भी भावुक करदेने वाला क्षण होता है. उस समय उसी के अनुरूप गीत गाए जाते हैं.

साभार -लाइव हिंदुस्तान

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