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मैं भी एक भुतहा गांव का निवासी हूं, व्यथित हूं, मजबूर हूं… यकुलांस

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आड़ी-टेढ़ी पगडंडी से होते हुए नदी के ऊपर पहुंचना और फिर छपाक… नदी में छलांग लगा देना. अभी अपने बचपन से निकल भी नहीं पाया था कि कंधे पर हल लेकर जाता एक बुजुर्ग और फिर खेत में ‘चल रे कबरा’ की आवाज ने नोएडा के फ्लैट से सीधे गांव और खेतों में फेंक दिया.

बुग्यालों में चरती भेड़-बकरियां एक बार फिर बचपन में गाय चराने के लिए जंगल जाने के दिनों को याद करा गईं. रुई से धागा बनाते और फिर घर के एक हिस्से में हुक्का और रेडियो पर बजते गीत, ये कुछ ऐसे नैसर्गिक पल हैं, जो शायद हर पहाड़ी व्यक्ति के दिलो-दिमाग पर छाए हुए हैं. जी हां बात पांडवाज ग्रुप के टाइम मशीन-4 की ही हो रही है.

28 मिनट की इस छोटी सी कहानी ने जो बड़ा मैसेज दिया है उसी के कारण 27 अगस्त को रिलीज हुए इस वीडियो के बारे में पूरे 12 दिन बाद 8 सितम्बर को लिख रहा हूं. दरअसल इस वीडियो की स्क्रिप्ट इतनी अच्छी और टाइट है कि मैं इस वीडियो के इस पक्ष को सबसे मजबूत कहना चाहता हूं.

लेकिन वीडियो देखकर कंफ्यूज हो जाता हूं कि स्क्रिप्ट कैसे सबसे मजबूत हो सकती है, फिल्मांकन ज्यादा अच्छा है. फिर जब इसका सोशल मैसेज की तरफ ध्यान जाता है तो लगता है यही बेस्ट है. लेकिन संगीत कानों में मिश्री की तरह घुलकर कहता है मैं हूं ना. हर चीज परफेक्ट बनाने के लिए इशान डोभाल, कुणाल डोभाल और सलिल डोभाल को बहुत बधाई.

अब बात मैं इतने दिन बाद क्यों इस शानदार प्रस्तुति के बारे में लिख रहा हूं – दरअसल टाइम मशीन 4 ने मुझे मेरे बचपन में भेज दिया था, मेरे गांव में भेज दिया था, जहां मेरे बचपन में न लाइट थी और न ही कंप्यूटर-लैपटॉप और मोबाइल. मैं उस दौर से निकल ही नहीं पा रहा था. मुझे और मेरे जैसे लाखों उत्तराखंडवासियों को ऐसा अनुभव कराने के लिए डोभाल बंधुओं का तहे दिल से धन्यवाद.

अपने नाम पांडवाज के अनुसार आपने पांडव नृत्य की भी एक झलक दिखलाई. वो जो गांव का कुत्ता है ना, जो गांव के किसी भी व्यक्ति के जाने पर उसके पीछे-पीछे लग जाता है, वह अनुभव सच में रुला देने वाला है. कुत्ता गांव और अपने गांववासी को छोड़ने को तैयार नहीं है, लेकिन हम अपना गांव-घर छोड़कर यहां परदेस में परायों के बीच खुशियां ढूंढ रहे हैं. वो बस काश कभी आई ही न होती, जिसने हमें इस महानगर में पटक दिया. आपके वीडियो में भी बुजुर्ग को वही बस देहरादून के शहरी जंगल में लाकर पटक देती है.

अब शहर आ गए हैं तो गांव तो अकेला पड़ेगा ही, यकुलांस इसी व्यथा को तो बताता है. ‘न जाने हमारी इस देवभूमि को किसका अभिषाप लगा है, यहां रहने वाले तो शहरों की तरफ चले गए और अब सिर्फ बुजुर्ग ही गांवों में बचे हैं. इन बुजुर्गों में से भी कुछ गांव छोड़कर शहर चले गए हैं और कुछ जाने की तैयारी में हैं. मैं अपनी नानी के घर गया तो वहां भी दरवाजों पर ताले लगे हुए थे. मैं डर गया, मुझे तो लगा मेरे नाना जी का देहांत हो गया है, लेकिन बाद में पता चला कि वो भी गांव छोड़कर शहर चले गए हैं. मामी के बारे में क्या ही कहूं, वह तो शहर जाने के लिए बहुत उत्साहित है.’

गीत या कहें रैप में सजाए गए इन शब्दों को गौर से सुनें तो पहाड़ का दुख और व्यथा साफ नजर आती है. ‘ऐसा भी नहीं है कि शहर जाकर हर कोई अमीर बन गया है. कुछ लोग भिखारियों की तरह जीवन जी रहे हैं तो कुछ पैसों के लिए सियार जैसे हो गए हैं. वहां हर कोई गरीबी और परेशानी में नहीं जी रहा, लेकिन 100 में से सिर्फ 2-4 लोग ही सफल बनते हैं.’ यही असल में शहरी जीवन की सच्चाई है.

हर कोई तो अमीर नहीं हो सकता. गांव में जहां अपनी खेती, अपनी मर्जी थी, वहीं शहरों में बहुत से लोग दूसरों के घरों में बर्तन-कपड़े धोने को मजबूर हैं, लेकिन वे भी गांव नहीं लौटना चाहते. गांवों का महत्व और शहरी जीवन के इस कटु सत्य को हमारे सामने रखने के लिए डोभाल बंधुओं का दिल से धन्यवाद.

लेखक -दिगपाल सिंह

लेखक myUpchar.com से जुड़े हैं और उत्तराखंड में अल्मोड़ा जिले के नैटी गांव से संबंध रखते हैं. हिंदुस्तान, आजतक, एनडीटीवी और दैनिक जागरण जैसे संस्थानों में पत्रकार रह चुके हैं.

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