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अहिल्याबाई जयंती विशेष: पति की मौत पर कर लिया था सती होने का फैसला, बाद में बिना लड़े जीत लिया युद्ध

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मालवा प्रांत की महारानी अहिल्याबाई होल्कर

भारतीय इतिहास में कुछ ऐसी महिलाएं हुई हैं जो न केवल अपने साहस के लिए जानी जाती हैं बल्कि महिला सशक्तिकरण और समाज सुधारों के क्रांतिकारी कदमों के लिए भी जानी जाती हैं. इन्हीं महिलाओं में एक नाम आता है मालवा प्रांत की महारानी अहिल्याबाई होल्कर का. महज 8 साल में शादी होने के बाद जब पति की मौत हुई तो 29 साल की अहिल्याबाई ने सती होने का फैसला कर लिया था लेकिन उनके ससुर ने उन्हें रोक लिया. बाद में वहीं अहिल्याबाई ऐसी महिला के रूप में विख्यात हुई जिसके किस्से आज भी इतिहास में दर्ज हैं.

मराठा समुदाया से पहुंची होल्कर राजघराने
1725 में आज ही के दिन उनका जन्म महाराष्ट्र के औरंगाबाद शहर के चौड़ी नामक गांव में हुआ था. पिता मनकोजी शिंदे ने उस समय अपनी बेटी को शिक्षित करने का फैसला किया जब समाज में बेटियों की पढ़ाई ना के बराबर होती थी. कहा जाता है कि जब मालवा के राजा (पेशवा) मल्हार राव कही जाते समय चौड़ी गांव में ठहरे हुए थे तो उनकी नजर अहिल्याबाई पर पड़ी जो पूरी तन्मयता के साथ भूखे और गरीब लोगों को खाना खिला रही थी. इतनी कम उम्र में ऐसा सेवाभाव देखकर पेशवा इतने खुश हुए कि उन्होंने अहिल्या का रिश्ता अपने बेटे खांडेराव के लिए मांग लिया और महज 8 साल की उम्र में अहिल्याबाई दुल्हन बनकर मराठा समुदाय से होल्कर राजघराने पहुंच गई.

पति की मौत पर कर लिया था सती होने का फैसला
जब 29 साल की उम्र में पति खांडेराव की 1754 में कुंभेर के युद्ध में मौत हो गई तो उन्होंने सति होने का फैसला किया लेकिन ससुर मल्हार राव ने संकट की इस घड़ी में अहिल्या का साथ देते हुए उन्हें रोक दिया और राज्य की बागडोर सौंपने का मन बना लिया. कहा जाता है कि अहिल्याबाई ने बाद में सती प्रथा के खिलाफ ऐशा विद्रोह किया जिसका असर दूर-दूर तक हुआ. इस बीच 1766 में जब ससुर मल्हार राव की मौत हुई तो उसके कुछ समय बाद उनके बेटे मालेराव की भी मौत हो गई और यहीं से शुरू हुआ अहिल्याबाई का वो दौर जो इतिहास के पन्नों में दर्ज हो गया.

महिला का गद्दी पर बैठना पड़ोसी राजाओं को नहीं आया रास
1767 में इंदौर की शासक बनने के बाद जब निकट के राजाओं को महिला का गद्दी पर बैठना रास नहीं आया तो वो अहिल्याबाई को कमजोर मानकर उनके राज्य को हड़पने की योजना बनाने लगे. एक दिन अचानक राघोवा पेशवा ने इंदौर में युद्ध के इरादे से अपनी सेना खड़ी कर दी. इस संकट की घड़ी में अहिल्याबाई ने अपने सेनापति तुकोजी को एक मैदान में भेजा और पेशवा को पत्र लिखा. ये ऐसा पत्र था जो राघोवा पेशवा को किसी तीर से अधिक तेज चुभा क्योंकि उसने ऐसी कल्पना भी नहीं की थी.

बिना युद्ध के ही हासिल की जीत
पत्र में कई बातें लिखते हुए अहिल्याबाई की जो लाइन राघोवा को चुभ गई थी वो थी, ‘अगर आप हमले के लिए आमादा है तो आइए मैं द्वार खोलती हूं औऱ मेरी स्त्रियों की सेना पूरी तरह तैयार है. जरा सोचिए अगर आप युद्ध जीत भी गए तो लोग क्या कहेंगे? एक स्त्री और शोकाकुल महिला को हरा दिया. और अगर हार गए तो लोग क्या कहेंगे कि राघोबा- एक महिला सेना के आगे हार गया? कैसे मुंह दिखाएंगे.’ इसके बाद राघोबा ने पत्र का जवाब देते हुए कहा था- आप गलत समझ रही हैं रानी साहिबा, मैं शोक संवेदना जताने आया हूं. इस तरह बिना युद्ध के ही रानी ने यह लड़ाई जीत ली थी.

शिवभक्त अहिल्या बाई ने कराया कई तीर्थों का निर्माण
शिव की अन्यय भक्त माने जानी वाली अहिल्याबाई ने काशी से लेकर गया, अयोध्या, सोमनाथ, जगन्नाथपुरी में कई ऐसे मंदिरों को फिर से निर्मित किया जो मुस्लिम आक्रमण कारियों द्वारा ध्वस्त कर दिए गए थे. अहिल्याबाई के बारे में कहा जाता है कि शिवपूजा के बिना वह पानी तक नहीं पीती थी. अहिल्याबाई का जीवन हालांकि दुखों से भरा रहा था. पहले पति, फिर अन्य परिजनों को खोने के बाद बेटे की विलासिता भरी जिंदगी और फिर उसकी मौत, बाद में बेटी के पति की मौत के बाद उसके सती हो जाने से उन्हें काफी दुख पहुंचा था. लेकिन इंदौर के लिए उन्होंने जो विकास और अन्य कार्य किए उनकी निशानियां आज भी मौजूद हैं. 72 साल की उम्र में उनका देहांत हो गया.

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