जन्मदिन विशेष : 72 घंटे अकेले चीनी सेना से भिड़ने वाला सैनिक, जिसकी आत्मा अब भी सीमा की सुरक्षा करती है

भारत के एक जाबांज सैनिक का नाम इतिहास में स्वर्णाक्षरों में लिख गया है. माना जाता है कि उसकी आत्मा आज भी देश के पूर्वी छोर की रक्षा करती है. अगर कोई सैनिक ड्यूटी पर सोता मिलता है तो उसे चांटा मारकर जगा देती है. इस शहीद सैनिक का नाम जसवंत सिंह रावत है.

उत्तराखंड से ताल्लुक रखने वाले इस सैनिक ने 1962 में भारत-चीन युद्ध के दौरान अकेले 72 घंटे तक की लड़ाई लड़ी थी. फिर शहीद हो गए थे. उनकी बहादुरी की कहानियां आज भी सेना में कही जाती हैं.

जसवंत सिंह रावत का जन्म वर्ष 1941 में आज ही के दिन हुआ था. चीन से युद्ध के दौरान 17 नवंबर 1962 को उनकी शहादत हो गई थी. रावत भारतीय थल सेना के जांबाज सैनिकों में थे.

आज भी माना जाता है कि जसवंत सिंह रावत युद्ध के मोर्चे पर बनी उसी चेक पोस्ट पर तैनात हैं. वहां उनकी एक प्रतिमा स्थापित की गई. 24 घंटे उनकी सेवा में सेना के पांच जवान लगे रहते हैं. यही नहीं, रोजाना उनके जूतों पर पॉलिश की जाती है. कपड़े प्रेस होते हैं.

जसवंत सिंह रावत का जन्म 19 अगस्त, 1941 को ग्राम बाडयू पट्टी खाटली, पौड़ी (गढ़वाल) में हुआ. वो 16 अगस्त, 1960 को चौथी गढ़वाल रायफल लैन्सडाउन में भर्ती हुए. उनकी ट्रेनिंग के समय ही चीन ने भारत के उत्तरी सीमा पर घुसपैठ कर दी. धीरे-धीरे उत्तरी-पूर्वी सीमा पर युद्ध शुरू कर दिया. सेना को कूच करने के आदेश दिये गये. चौथी गढ़वाल रायफल नेफा क्षेत्र में चीनी आक्रमण का जवाब देने के लिए भेजी गई.

शहीद सैनिक जसवंत सिंह रावत 

अरुणाचल के मोर्चे पर भेजे गए तब ट्रेनिंग खत्म ही हुई थी
भारतकोश डॉट आर्ग वेबसाइट के अनुसार 17 नवम्बर 1962 को जब चौथी गढ़वाल रायफल को नेफा यानि अरुणाचल प्रदेश भेजा गया. तब जसवंत सिंह रावत की ट्रेनिंग खत्म ही हुई थी. उनकी पलटन को त्वांग वू नदी पर नूरनांग पुल की सुरक्षा हेतु लगाया गया. चीनी सेना ने हमला बोला.यह स्थान 14,000 फीट की ऊँचाई पर था. चीनी सेना टिड्डियों की तरह टूट पड़ी.

चीनी सैनिकों की ज्यादा थी. उनके पास साजोसामान भी बेहतर थे. इस वजह से हमारे सैनिक हताहत हो रहे थे. दुश्मन के पास एक मीडियम मशीनगन थी, जिसे कि वे पुल के निकट लाने में सफल हो गये. इस एलएमजी से पुल व प्लाटून दोनों की सुरक्षा खतरे में पड़ गई.

मीडियम मशीनगन लूटकर गोली बरसाने लगे
ये देखकर जसवंत सिंह रावत ने पहल की. वो मशीनगन को लूटने के उद्देश्य से आगे बढ़े. उनके साथ लान्सनायक त्रिलोक सिंह व रायफलमैन गोपाल सिंह भी थे. ये तीनों जमीन पर रेंगकर मशीनगन से 10-15 गज की दूरी पर ठहर गये. उन्होंने हथगोलों से चीनी सैनिकों पर हमला कर दिया. उनकी एलएमजी अपने कब्जे में ले ली. उससे गोली बरसाने लगे.

अरुणाचल प्रदेश के जसवंत सिंह मेमोरियल में बनी हुई शहीद सैनिक की प्रतिमा

अकेले ही पांच बैरकों से जाकर गोलियों की बौछार करते रहे
जसवंत सिंह रावत ने बहादुरी दिखाते हुए बैरक नं. 1, 2, 3, 4 एवं 5 से लगातार गोलियों की बौछार करके दुश्मन को 72 घंटे रोके रखा. स्थानीय महिला शीला ने उनकी बड़ी मदद दी. उन्हें गोला बारूद व खाद्य सामग्री लगातार उपलब्ध कराती रहती. उस समय जसवंत में आई ताकत देखते बनती थी. चीनी सेना इस गफलत में थी कि पूरी भारतीय सेना गोलियों की बौछार करके उन्हें रोक रही है.

चीनी कमांडर भी हो गया मुरीद
1962 के इस भयंकर युद्ध में 162 सैनिक वीरगति को प्राप्त हुए. 1264 को दुश्मन ने कैद कर लिया. वहां पर मठ के गद्दार लामा ने चीनी सेना को बताया कि एक आदमी ने आपकी ब्रिगेड को 72 घंटे से रोके रखा है. इस समाचार के बाद चीनी सेना ने चौकी को चारों ओर से घेर लिया. जसवंत सिंह रावत का सर कलम करके अपने सेनानायक के पास ले गए. चीनी सेना का कमांडर खुद इस सैनिक की वीरता का मुरीद हो गया.

स्थानीय लोग देवता की तरह पूजते हैं
नेफा की जनता जसवंत सिंह रावत को देवता के रूप में पूजती है. उन्हें ‘मेजर साहब’ कहती है. उनके सम्मान में जसवन्त गढ़ भी बनाया गया है. कहा जाता है कि उनकी आत्मा आज भी देश के लिए सक्रिय है. सीमा चौकी के पहरेदारों में से यदि कोई ड्यूटी पर सोता है तो वह उसे चाटा मारकर चौकन्ना कर देती है.स्थानीय लोगों का मानना है कि जसवंत सिंह रावत की आत्मा आज भी भारत की पूर्वी सीमा की रक्षा कर रही है.

शहीद सैनिक जसवंत सिंह रावत की याद में अरुणाचल प्रदेश के पास सीमा पर बना हुआ जसवंत गढ़

साभार न्यूज़ 18

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