बीजेपी ने उत्तराखंड में पहले भी बदले थे 5 साल में तीन सीएम, लेकिन अगले चुनाव परिणाम सुखद नहीं रहे!

देहरादून| वर्ष 2017 के उत्तराखंड विधानसभा चुनाव में प्रंचड बहुमत के साथ सत्ता में आई भाजपा को पांच साल में तीन मुख्यमंत्रियों का दांव महंगा पड़ सकता है. पार्टी इससे पहले भी वर्ष 2007 में यह प्रयोग कर चुकी है. लेकिन तब अगले चुनाव में परिणाम सुखद नहीं रहे थे. 

वर्ष 2007 से 2012 के बीच पांच सालों में भाजपा ने तीन बार मुख्यमंत्री बदले. 8 मार्च 2007 को भुवन चंद्र खंडूड़ी को मुख्यमंत्री बनाया गया. लेकिन वह 23 जून 2009 तक ही इस पद रह सके. इसके बाद बीजेपी ने खंडूड़ी की जगह रमेश पोखरियाल निशंक को सत्ता की कमान सौंपी.

कांग्रेस को भी पांच साल में दो मुख्यमंत्री बदलने पड़े
निशंक ने 24 जून 2009 को उत्तराखंड के मुख्यमंत्री के तौर पर शपथ ली, लेकिन चुनाव से ठीक चार महीने पहले उनकी कुर्सी भी चली गई. 10 सितंबर 2011 को भाजपा ने खंडूड़ी है जरूरी के नारे के साथ पुन: खंडूड़ी की ताजपोशी मुख्यमंत्री के पद पर की.

लेकिन चार माह बाद ही हुए विस 2012 के चुनाव में वह खुद अपनी सीट हार गए. इसके बाद फिर से कांग्रेस की वापसी हो गई. कांग्रेस को भी पांच साल में दो मुख्यमंत्री बदलने पड़े. पहले विजय बहुगुणा सीएम बने. दो साल बाद हरीश रावत को कमान सौंपी गई.

भाजपा के पास इस बार प्रचंड बहुमत था, बावजूद इसके ऐसे हालात क्यों बने की पार्टी को पांच साल में तीन मुख्यमंत्री देने पड़े. बहरहाल, प्रदेश भाजपा इसके जितने भी कारण गिनाए, लेकिन यह तो तय है कि आने वाले विस चुनावों में पार्टी नेताओं को बार-बार मुख्यमंत्री बदले जाने के कारणों के सवालों से जूझना पड़ेगा. जनता सवाल पूछेगी, ऐसे में भाजपा नेताओं को जवाब देते नहीं बनेगा.

पिछली बार जब जनता ने डबल इंजन दिया था तो राज्य के विकास की भी डबल रूपरेखा अपने दिमाग में बना ली थी, लेकिन इससे इतर एक ही पार्टी में इस तरह की अस्थिरता अब कई सवाल छोड़ गई है, जिसका जवाब आखिरकार भाजपा नेताओं को ही देना है.

वर्ष 2017 के विस चुनाव में प्रचंड जीत के बाद अचानक से त्रिवेंद्र रावत के नाम की घोषणा और फिर उनके चार साल के कार्यकाल के बाद अचानक तीरथ के नाम की घोषणा. इस पूरी परिपाटी में राज्य से चुने गए विधायक कहीं नहीं थे.

ऐसे में सवाल उठता है कि जब सारे फैसले केंद्रीय नेतृत्व की ओर से ही लिए जाने हैं तो राज्य में चुने गए विधायकों के उस अधिकार का क्या, जिसमें वे सहमति से अपना नेता चुनते हैं. पार्टी फोरम से बंधे विधायक भले ही इस बात को खुलकर न कहें, लेकिन जनता के साथ चुने गए विधायकों को हमेशा ये सवाल तो सालता ही रहा है. 

पार्टी सूत्रों की मानें तो भाजपा के आंतरिक सर्वे में मुख्यमंत्री तीरथ सिंह रावत की परफाॅर्मेंस ठीक नहीं थी. ऐसे में यदि उनके नेतृत्व में पार्टी चुनाव में जाती तो उसको नुकसान हो सकता था. ऐसा पार्टी की ओर से कराए गए आंतरिक सर्वे की रिपोर्ट में सामने आया था. बताया जा रहा है कि ऐसे में पार्टी कोई भी रिस्क नहीं लेना चाहती थी.

साभार-अमर उजाला

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