उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्र में सप्तधान्य भिगोने के साथ ही लोकपर्व सातूं-आठूं का आगाज हो गया है. रविवार 25 अगस्त को अमुक्ता भरण सप्तमी मनाई गई. आपको बता दें कि कुमाऊं का प्रसिद्ध लोकोत्सव आठूं अमुक्ताभरण सप्तमी तथा दुर्गाष्टमी को गौरा महेश की पारंपरिक पूजा के बाद आठ पर्व पर गाए जाने वाले लोकगीतों और लोक नृत्यों की धूम मच जाती है.
वैसे बिरूड़ पंचमी के दिन सप्त धान्यों को भिगोने के साथ इस पर्व की औपचारिक रुप से शुरुआत हो जाती है गांव में इस पर्व के प्रति काफी उत्साह दिखाई देता है लोक गायक अपने ढ़ोल-ढ़ोलक तैयार रखते हैं. वर्षा ऋतु के सबसे रंगीले उत्सव को मनाने में वह कोई कसर छोड़ना नहीं चाहते हैं. सांतू-आंठू त्यौहार में तीन-चार दिन कुमाऊंनी लोक गीत और लोक नृत्य झोड़ा,चांचरी आदि की धूम मची रहती है. गांव की महिलाएं, पुरुष रोज शाम को,आनंद के साथ पुरे गावं की सुख समृद्धि के लिए,नाचते गाते हैं,आनंद उत्सव मानते हैं.
सातूं-आठूं लोक पर्व भगवान् के साथ मानवीय रिश्ते बनाकर ,उनकी पूजा अर्चना और उनके साथ आनंद मानाने का त्यौहार है. उत्तराखंड के पिथौरागढ़ व कुमाऊं के सीमांत क्षेत्र में मनाया जाने वाला यह त्योहार प्रतिवर्ष भाद्रपद की पंचमी से शुरू होकर अष्टमी तक चलता है.
सातूं आठूं का अर्थ है सप्तमी और अष्टमी का त्यौहार. भगवान शिव को और माँ पार्वती को अपने साथ दीदी और जीजा के रिश्ते में बांध कर यह त्यौहार मनाया जाता है. यही इस त्यौहार की सबसे बड़ी विशेषता है. कहते हैं,जब दीदी गौरा( पार्वती ) जीजा मैशर (महेश्वर यानि महादेव ) से नाराज होकर अपने मायके आ जाती है ,तब महादेव उनको वापस ले जाने ससुराल आते है. दीदी गौरा की विदाई और भिनज्यू यानि जीजाजी मैशर की सेवा के रूप में यह त्यौहार मनाया जाता है. यह त्योहार कुमाऊं सीमांत में सातूं आठूं के नाम से तथा,नेपाल में गौरा महेश्वर के नाम से मनाया जाता है. इस लोक पर्व को गमारा पर्व भी कहा जाता है.
भाद्रपद की पहली पंचमी से शुरू होती है त्यौहार की तैयारी, भाद्र पंचमी को बिरुड पंचमी के रूप में मनाया जाता है. इस दिन एक साफ ताबें के बर्तन में,गाय के गोबर से पंच चिन्ह बनाकर उसपे दुब अक्षत करके उसमे पांच या सात प्रकार का अनाज भिगोने डाल दिया जाता है. इन अनाजों में मुख्यतः गेहू ,चना, सोयाबीन, उड़द,मटर,गहत, क्ल्यु बीज होते हैं. सातूं (सप्तमी) के दिन जल श्रोत पर धो कर ,आठूं (अष्टमी) के दिन गमारा मैशर (गौरी महेश ) को चढ़ा कर,फिर स्वयं प्रसाद रूप में ग्रहण करते हैं. तथा सभी लोग ऐसे बिरुड रूप में चढ़ाकर आशीष देते हैं.
सातों (सप्तमी ) के दिन महिलाये इक्क्ठा,होकर गांव के प्राकृतिक जल स्रोत पर जाती हैं. पांच जगह अक्षत करके,मगल गीत गाते हुए,वहां बिरूड़ो को धो कर लाती हैं. बिरुडो को वापस पूजा घर में रख कर ,गमारा दीदी का श्रृंगार किया जाता है. गमारा दीदी पर्वती को बोलते हैं. गमारा दीदी का श्रृंगार के लिए महिलाएं सोलह श्रंगार करके धान के खेत से एक विशेष पौधा सौं और धान के पौधे लाती हैं. उससे डलिया में गमरा दीदी को सजाया जाता है.
फिर लोकगीत गाते हुए गाँव के उस स्थान पर रख देते हैं, जहां बिरुड़ पूजा का आयोजन होता हैं. और पंचमी के दिन भिगाये गए उन बिरुड़ से गमरा दीदी ( गौरी मा) की पूजा होती है. इस शुभावसर पर अखंड सौभाग्य और संतान की मंगल कामना के लिए सुहागिन महिलाएं, गले व हाथ मे पीली डोर धारण करती हैं. पुरोहित सप्तमी की पूजा करवाते हैं. महिलाएं,लोकनृत्य तथा लोकगीतों का आनंद लेती हैं.
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